प्रेरणा के पल (1 )
हमारे जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जिन्हें यदि याद रखा जाए तो बहुत कुछ अच्छा हो सकता है|
बचपन की बात है मेरी उम्र उस समय 10 वर्ष की थी मेरे पूज्य पिताजी ने मुझे ₹10 दिए और दुकान से कुछ सामान खरीदने भेजा
₹7 की सौदा थी तीन रुपए वापस होना थे लेकिन सेठ जी ने धोखे से मुझे ₹5 वापस कर दिए मुझे बड़ी खुशी हुई कि दो रुपए ज्यादा मिल गए !
,मैं खुशी-खुशी वापस घर आ गया और बाबू जी से कहा कि दुकानदार की गलती से हमें ₹2 ज्यादा मिल गए!
बाबूजी मुस्कुराए और बोले केवल ₹2 के फायदा में इतने ज्यादा खुश हो गए अगर तुम्हें ₹10 का फायदा हो जाए तो कैसा रहेगा?
मैंने कहा तब तो मजा आ जाएगा तो उन्होंने अपनी जेब से 10 का नोट निकाला और मुझे दिया कहा कि जाओ यह ₹2 दुकानदार को वापस कर आओ और इस ईमानदारी के लिए यह ₹10 तुम्हें इनाम मैं देता हूं, मैं बड़ा खुश होकर के सेठ जी के पास गया और कहां कि आपने धोखे से मुझे ₹2 ज्यादा दे दिए थे सेठ जी बड़े खुश हो गए और खुश होकर उन्होंने भी 5 का नोट निकाला और कहा
” ये तुम्हारी ईमानदारी का इनाम” !
सज्जनों इस घटना ने मेरे मन में यह बात अच्छी तरह से जमा दी की ईमानदारी का फल 15 गुना होता है और तब से मैंने यह मैंने निर्णय लिया ,कि गलत तरीके से कभी भी हमें किसी का पैसा नहीं लेना है |
बचपन में मन बड़ा कोमल होता है उस समय जो भी संस्कार बैठ जाता है वह जीवन पर्यंत रहता है और इसका प्रमाण मैंने एक सच्ची कहानी पढ़कर प्राप्त भी कर लिया।
विश्वविख्यात सुल्ताना डाकू को जब फांसी दी जाने लगी, तो उससे आखिरी इच्छा पूछी गई, उसने कहा कि मैं आखिरी समय में अपनी मां से मिलना चाहता हूं, तुरंत ही उसकी मां को बुलाया गया सुल्ताना ने कहा मेरे हाथ खोल दो, उसके हाथ खोल दिए गए, और इसने तुरंत ही दोनों हाथों से अपनी मां का गला दबाना शुरू किया,
बड़ी मुश्किल से उसकी मां को बचा पाए. मजिस्ट्रेट ने पूछा तुम अपनी मां को क्यों मारना चाहते थे ? तो सुल्ताना ने कहा जज साहब बचपन में मैंने अपने एक दोस्त की पेंसिल चुराई, और अपनी मां को बताया तो
मां ने कहा पेंसिल चुराते हुए तुम्हें किसी ने देखा तो नहीं था?
मैंने कहा किसी ने नहीं देखा तो माँ ने मेरी पीठ थपथपाई मैं खुश हो गया, और मुझे इस काम को करने की एक मजबूत प्रेरणा मिली। फिर क्या था मैं और चोरियां करने लगा, मेरी मां बहुत खुश होने लगी धीरे धीरे इन्हीं चोरियों की आदत ने मुझे डाकू बना दिया ,और आज मैं इसी वजह से फांसी पा रहा हूं; मैं समझता हूं कि अगर मेरी मां उस पहली पेंसिल चोरी पर मुझे डांट देती तो आज मुझे
बेमौत नहीं मरना पड़ता।
सज्जनों ! माता पिता अगर चाहें और बचपन से ही बच्चों के प्रति सावधान रहें तो निश्चित रूप से बच्चे अच्छे बन सकते हैं, यहां कुछ माता-पिताओं की बड़ी कठिन परीक्षा भी है क्योंकि जिन का स्वभाव स्वयं गलत कार्य करने का है वह बुरे कामों को कभी भी नहीं रोक पाते उन्हें यह सोचना चाहिए हमने अपने स्वभाव बस बुरे काम किए , या जिसने भी बुरे काम किये उसका परिणाम भोगना पड़ा। जैसा हमने भोगा है वैसा अपने बच्चों को नहीं भोगने देंगे! यह परम विवेक सभी को जागृत करना चाहिए।
सर्वे भवंतु सुखिनः की भावना के साथ सादर हरि स्मरण।
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