हम क्या चाहते हैं ?
पितरों की कृपा से सुख शांति समृद्धि : या पितरों के भूखे रहने से दुःख अशांति .
हमारे जीवन में हमारी श्रद्धा में, हमारी संस्कृति में, और हमारी परंपराओं में, व्रत, उपवास, तीज, त्यौहार का बड़ा महत्त्व है। पूरे वर्ष के तीज त्योहारों में 15 दिवसीय एक विशेष पर्व है पितर पर्व।
यह वह समय है जब हम अपने सगे माता-पिता दादा दादी को याद करके उनके लिए जल दान, अन्न दान, पिंड दान करते हैं, इसको केवल परंपरा मानकर नहीं करना चाहिए, और ना ही यह मानना चाहिए कि यह केवल शास्त्र की आज्ञा है, बल्कि भावना यह होना चाहिए कि जिन माता पिता, दादा दादी, ने अपने संपूर्ण जीवन को ,अपने संपूर्ण परिश्रम के धन को, केवल अपनी संतान को सुखी देखने के लिए समर्पित कर दिया,।
माता पिता ने कभी यह भी नहीं सोचा इसके बदले इनसे कुछ मिलेगा या नहीं बल्कि संतान चेहरे पर खुशीदेखने के लिए अपनी सारी कमाई को बड़े प्रेम से दे दिया।
यह तो हुई उनकी यहां की कहानी,
अब चलते हैं पितर लोक
जहां का सिस्टम यहां से अलग है अपना धरती पर जितना बड़ा 1 वर्ष होता है पितर लोक में इतना बड़ा केवल 1 दिन होता है सो स्वभाविक रूप से सभी लोग दोपहर में भोजन करते हैं, अतः उनका दोपहर हमारे यहां 6 महीने बाद होता है यानी पितर पक्ष में जैसे ही दोपहर हुआ, और वे पितर बड़े प्रेम से भोजन करने के लिए अपनी उस संतानों के यहां आए, जिनको अपनी सारी कमाई दे गए थे, लेकिन यहां आकर के कुछ पितर श्रद्धा बान संतान के यहां से भोजन करके संतुष्ट होकर आशीर्वाद देकर चले जाते हैं और फिर दूसरे दिन यानी अगली साल पितर पक्ष में फिर आते हैं।
कुछ संताने ऐसी होती है जो इस कार्य को नहीं मानती है और बे पितर पक्ष में पितरों के लिए भोजन तो दूर जल का दान भी नहीं करते ऐसी परिस्थिति में उनके माता-पिता दोपहर में जब उनके यहां आते हैं और जब उनकी कोई पूछ जांच नहीं होती, भोजन पानी कुछ नहीं मिलता तो बेचारे रोते हुए अपने पिछले कर्मों को याद करते हुए, जिनके लिए मैंने सारा जीवन खपा दिया वही आज मुझे पानी तक को नहीं पूछ रहे हैं, ऐसा सोच कर विलख विलख कर रोते हुए वापस चले जाते हैं, और इस आशा में रहते हैं कि शायद कल भोजन मिलेगा, अगले वर्ष फिर आते हैं लेकिन यहां तो इस विषय में आस्था ही नहीं है, सो फिर उन्हें निराश होकर लौटना पड़ता है ,जब वे दो चार बार निराश होकर के भूखे रहते हुए दुखी होते हैं, उनके जो आंसू गिरते हैं
बे आंसू बज्रपात के समान उनकी संतान के सारे सुखों को नष्ट कर देते हैं ।
और संतान फिर परेशान होकर बड़े-बड़े जानकारों से मिलते हैं ,पूछते हैं कि हमारे दुखों का क्या कारण है ,ऐसे में जो जानकार की श्रेणी में आते हैं ,उनमें भी कुछ अल्पज्ञ होते हैं, जो यह कह कर समाधान करते हैं कि तुम्हारे पितर तुमसे नाराज हैं , जबकि उनको कहना यह चाहिए कि तुम्हारी बेवफाई से ही तुम्हें यह दुख प्राप्त हुआ है, जिन पितरों ने तुम्हारे लिए सब कुछ , किया, उनके लिए तुम एक लोटा पानी भी नहीं दे सकते हो, इस परेशानी का कारण तुम्हारी सोच है।
बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है ऐसे परेशान लोगों की परेशानी बढ़ाने में बहुत से सलाहकार भ्रमित करते रहते हैं, कोई दुखों को दूर करने के लिए पूजा-पाठ बताता है ,कोई बलिदान की बात करता है, कोई और अन्य दान की प्रेरणा देता है, लेकिन हम आपसे पूछना चाहते हैं किसी के प्रति किया गया अपराध क्या किसी दूसरे को सुख देने से शांत हो सकता है ,जिनकी आत्मा भूख से तड़प रही है जब तक उसे भोजन नहीं कराएंगे ,तब तक सुख शांति होना संभव नहीं है,।
इसी को पितर दोष भी कहा जाता है यद्यपि हम इस पक्ष में नहीं है कि
इस को "पितृदोष" कहा जाए बल्कि इसे "संतान दोष" कहना चाहिए,
हां अगर गहरे विवेक से देखा जाए तो जरूर इसे पितरों का इतना दोष मानेंगे कि जिन्होंने आंख बंद करके ,अपनी सारी कमाई अपनी संतान को दे दी, अगर उन्होंने अपने जीते जी अपनी कमाई का कुछ अंश ,परोपकार में, दीन दुखियों की सेवा में, धर्म कार्य, तीर्थ व्रत आदि में खर्च किया होता तो निश्चित रूप से यहां से ईश्वरीय व्यवस्था के तहत उन्हें अवश्य प्राप्त हो जाता,
यह बात हमने जानबूझकर इसलिए कही है कि जो आज हम अपने पितरों के साथ कर रहे हैं वही कल हमारे साथ होने वाला है ,इसलिए सावधान हो जाओ अभी से कुछ परोपकार ,समाज सेवा, दान धर्म, इत्यादि में खर्च करना जरूरी समझिए ताकि मरने के बाद हमें भी ना रोना पड़े ,थोड़ा कहा बहुत समझना !
जय श्री राधे जय श्री कृष्ण।
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